Sunday, June 7, 2015

मां का दिल जो पिघला, तो बरसे आख से पानी

यादाश्त भी है कमजोर ,तो मै अक्सर भूल जाती हू.

मगर बचपन की हर एक बात मुझे तो याद रहती है .

भूल से भी ना भूले तुम्हारी हर एक याद  रहती है.

तो वादा कर के जाओ तुम , दूबारा लौटने का बेटा.

मां का दिल जो पिघला, तो बरसे आख से पानी .

गला मां का जो भर आय़ा , मै कुछ भी बोल ना पाया.

तुम्हारी राह में मैने, मेरी नजरों को भेजा है ....

आखों की कमजोरी ,जो धूधला ही नजर आये.

मगर बेटा ये आखे राह देखे है ,तुमको तलाशे है.

तो वादा कर के जाओ तुम , दूबारा लौटने का बेटा.



Friday, April 17, 2015

श्री प्रधानमंत्री(मिस्टर पीएम)

भाई ये मोदी मोदी क्या है? हम आमलोग, खासलोग और मीडिया सभी ने अपनी आदत बना ली है मोदी मोदी बोलने की । अपने प्रधानमंत्री को ऐसे संबोधित करना....ये थोड़ा अजीब नहीं लगता ?
जहां एक ओर सारी दुनिया श्री मोदी का लोहा मान रही है ,अदब और सलाम ठोक रही है , वहीं हम प्रधानमंत्री को मोदी बोलकर थोड़ा हल्का नहीं कर रहे है । हम भारतीय, भाषाई संस्कार में हमेशा से अव्वल रहे है । हमारे पास किसी को भी सम्मान देने के लिए आदर सूचक शब्दों का कभी अभाव नहीं था और ना ही आज  है । फीर आज क्यों ये समस्या आ गयी ,जबकी आजकल तो हम शब्दों में और भी धनी हो गये है। हिंदी और बाकी भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी भाषा के शब्दों का अतिरिक्त साथ मिल रहा है। फीर ऐसा क्यों है कि हम अक्सर प्रधानमंत्री के नाम के साथ आदर सूचक शब्द को  भूल जा रहे है।  प्रधानमंत्री के प्रति अपना स्नेह , लाड , और निकटता दिखाने में मोदी कह देना बिल्कूल गलत नहीं है लेकिन व्यहारिकता में  ऐसा कहना थोड़ा अटपटा सा लगता है । मैं कल एक हॉलीवुड मूवी देख रहा था । मूवी का हीरों अमरिकन राष्ट्रपति को मिस्टर प्रेसिडेंट कह रहा था । अचानक मेरे खाली दिमाग में एक सवाल ने दस्तक दी । सवाल था, तुम अपने प्रधानमंत्री को क्या कहते हो ? मेरे दिमाग ने तुंरत रिप्लाई दिया "मोदी" । लेकिन पहली बार मुझे ये कुछ अटपटा सा लगा । फीर कुछ देर रुक कर मेरे दिमाग ने पुन: रिप्लाई किया "श्री प्रधानमंत्री" तभी मेरी आधी अधूरी अंग्रेजी बोल पड़ी ,अऱे नहीं "मिस्टर पीएम" पर दोनों ने ही मुझे राहत दी और अहसास कराया कि मै क्या भूल रहा था। मै ये सबकुछ किसी व्यक्ति विशेष के प्रशंसक के रुप में नही लिख रहा हू । मै तो बस एक अनायास आये सवाल को आप सभी से साझा कर रहा हू ,और ये उम्मीद करता हू की आप में से ही कोई भाषा वैज्ञानिक प्रधानमंत्री के लिए और भी नये आदर सूचक शब्द बनाएगा क्योकि ये दौर  है"मेकइनइंडिया" का । स्मृत कुमार



Tuesday, April 14, 2015

बम बम बनारस

कुछ सुलझा कुछ उलझा शहर मेरा
दुख लिए, तकलिफ लपेटे
रेशम के धांगो से देवियों की
लाज बुनता है शहर मेरा।
मदमस्त मस्ती की मुस्कान लिए,
गिरता सम्हलता शहर मेरा।
साप सीढ़ी वाली  गलिया,
जलेबी सी सीधी मेरे शहर की गलिया
मां गंगा के दर पे ले
जाती दर्शन कराती
मेरी हमसफर  गलिया ।
मेरे शहर की धङकन है
मेरे शहर की गलिया ।
गलियों का रेला बना शहर मेरा
कुछ सुलझा कुछ उलझा शहर मेरा।
गंगा के घाटों में मदिर के घंटो में
पान की पिचकारी में हाथों की मेहंदी में
बोली मे भाषा में धर्म में ज्ञान में
प्यार मे मुस्कान में गालियों की मिठास में
मेरा शहर उलझा रहता है ।
शंकर कि नगरी ये मंदिर का संसार यहां
मुक्ति यहां शक्ति यहां
बाबा की जयकार यहां
फिजाओं में घुलती महकती
अजानों की गुलजार यहां।
राम रहीम का प्यार यहां
ठमुरी यहां दादरी यहां
साहित्य की रीत यहां
गुरु शिष्य की प्रीत यहां
सारे रिश्तों का साथ यहां
किस्सा यहां कहानी यहां
तेरे मेरे जस्बात यहां
याद आये तो चले आना
मेरे शहर में भगवान बसता है।
मेरे दिल मे मेरा शहर बसता है
जीवन के सारे रसों से
बना मेरा बम बम बनारस



पहचान का संकट

युवा देश की रीढ़ होता है । जिसके असीमित दम और विलक्षण दृष्टीकोण के सहारे  देश विकास करता है। युवा
आज सुई से लेकर विशालकाय पूलों, जहाजों और मिलों ,कारखानों का निर्माण कर रहा है,। रॉकेट सांइस पढ़ता है, कविताएं लिखता है, तरानों को ताल देता है, स्कार्इडाइविंग करता है , 
देश के राजनीतिक गलियारों में अपराध ,भ्रष्टाचार जैसें मुददों पर आवाज उठाता है , शोर मचाता है।
 वो भी अपने संविधानिक अधिकारों की हद में । 
उसकी आशाए सागर से गहरी और हौशलें आसमान से भी उचें है। 
इन सब के बीच सिक्के का दूसरा पहलू ये भी है कि आज देश के बहुत से युवा खुद के अस्तित्व से लड़ रहे है और खुद की पहचान के संकट से गुजऱ रहे हैं। प्रश्न ये मन में उठता है कैसा पहचान का संकट और कैसी अस्तित्व की जंग।
आदमी की शख्सियत उसके शारीरिक, समाजिक, और व्यक्तिगत पहचान से बनती है।
 और समस्या भी यहीं से शुरू होती है। जब इन्हीं तीन हिस्सों या किसी एक हिस्से में चोट पहुचती है। देश में आज ऐसे बहुत से युवा है जो बचपन में हुर्इ कुछ दुखद अनुभूतियों और वर्तमान की घुटन भरी प्रतिकूल सामाजिक परिस्थितयों में ऐसे घिर जाते है कि उनके मन, मस्तिष्क और व्यवहारिक समझ में दोष और विसमता पैदा हो जाती है।वो अपने जीवन के लक्ष्य को या यू कहें कि, भविष्य में क्या करना है, किस लिए करना ,क्यों करना है । इन सवालों के जवाब तय ही नहीं कर पाते । उनके प्रति उदासीन और बेबस नजर आते है। ऐसी स्थितियों को मनोविज्ञान में रोल कंनफूयजंन या आइडेंनटिटि क्राइसिस का उत्पंन होना कहते है। ऐसा होने पर युवा अपने करियर के प्रति ना आशावान दिखता है और ना ही ठीक ढ़ग से उसका मार्गदर्शन कर पाता है । खुद की कल्पनाशक्ति इच्छाशक्ति और अपनी वास्तविकता पर ही संदेह करने लगता है ।अपनी पहचान को ऐसी बातों से प्रदर्शित करने लगता है , जो मौजूदा समय में होती ही नहीं ।
अपने समकक्ष लोगों के सामने भी बराबरी की भावना पैदा नहीं कर पाता।
ये स्थिती तब और नाजुक हो जाती है , जब खुद से हारे ऐसे नवजवान अपनी शिक्षा और अपने मनचाहे काम के प्रति भी असमर्थ होने लगते है। 
देश में ऐसे हजारों युवक है, जिनके अंदर भावनाओं के प्रति प्रेम और काम के प्रति लगन का अभाव है।
 तो वहीं उनके अंदर जीवन लक्ष्यों और सामाजिक नियमों के उपेक्षा की प्रधानता हीं समार्इ हुर्इ है। ज्यादा तर युवको में बाहरी और आंतरिक अनुभवों में परस्पर विरोध होता है। जिसके कारण उनके अंदर खुद के अस्तित्व को लेकर तीव्र बेचैनी और छटपटाहट होती है।
कभी कभी ये समस्याए इतनी जटिल और भयानक हो जाती है कि उनके अंदर निगेटिव आइडेंटिटि का जन्म हो जाता है । जो आगे चलकर कारण बनता है , अपराध का , गैर सामाजिक व्यवहार का, मनोविकार का । यह एक ऐसी पहचान है जो उनके माता पिता सगे साथी दूारा बताये गये पहचान के बिल्कूल उलट होती है।
अधिकांश युवाओं को अपनी पहचान की जटिलता के बारे में थोड़ी बहुत ही जानकारी होती है। इस बात को ऐसे समझा जा सकता है।
क्या आप को पता है कि आप कौन है। यहां सवाल ये नहीं की आप गोरे है या काले, सवाल ये भी नहीं की आप हिंदू है या मुसलमान ।
सवाल ये है कि आप अंदर से कौन है आपकी सोच और चीजों को परखने का नजरिया क्या है। आपके जीने मरने ,होने ना होने से किसी को क्या फर्क पड़ता है या आपको क्या फर्क पड़ता हैं।
अगर आप इन सवालों के जवाब को महसूस नहीं कर पा रहे है तो आप पहचान के संकट का सामना कर रहे है।
इस समस्या का समाधान तभी हो सकता है जब युवा अपने पुराने दुखद अनुभवों को भूल पाये और भविष्य में आने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार रहे। 
पहचान का संकट हमेशा एक जैसी परिस्थितिया ही पैदा नहीं करता ,इस लिए युवाओं को आने वाली जरूरतों और आशाओं के हिसाब से खुद को लगातार परिभाषित करना होगा। जिसे वो अपनी पहचान को लेकर जागरूक हो सके और अपनी आंतरिक क्षमता को उच्चयतम स्तर तक विकसित कर सके।

ठेला आ गया चलो कुछ जरुरतें ले आये.........

देश में भले ही बिग बजार ,विशाल मेगामार्ट, रिलायंस फ्रेस जैसें तमाम रिटेल स्टोर खुल गये हो , लेकिन लोगों में , विशेषकर महिलाओं का फेरीवालों से खरीददारी करना आज भी बदस्तूर जारी है।
दूध , दही हो या भाजी ,तरकारी तेल मसालें हो या घरेलू उपयोग के कपड़े और सौन्दर्य प्रसाधन, सभी कुछ तो मिलता है  जादूगर ठेलेंवालों के पास
 वो भी हमारी तय की गर्इ कीमत पर।
आज एक तरफ जहां बड़े रिटेल स्टोर छूट रूपी भ्रमजाल और निश्चित उपहारों से गृहणियों को रिझाते नजर आते है  तो वहीं ठेलें वाला , अपने जुगाड़ से घरेलू जरूरतों को तौलता नजर आता है। 
वो भी हमारे दरवाजे ,चौराहे तो कभी गलियों में या पास वाले नुक्कड़ पे । मुनाफे में कौन रहा ये कोर्इ नहीं जानता लेकिन देश की अधिकाश महिलाओं के लिए देश की कुल आबादी के लगभक एक प्रतिशत फेरी वालों से उत्पाद का सौदा करना, हमेशा से एक बेहतर विकल्प रहा है।
ऐसे सौदों में जहां भारतीय नारीयों की पारखी नज़र और मोलभाव की विलक्षण तकनीक का पता चलता है , तो वहीं स्ट्रीट वेंडर के तराजू में छिपी साफगोर्इ और छल को भी आसानी से देखा जा सकता है।
आम तौर पर स्ट्रीट वेंडर्स महिलाओं के साथ ज्यादा आत्मीय व्यवाहिरकता को प्रगट करते है। बीबी जी , बहन जी , दीदी, माता जी , जैसें प्रचलित संबोधन शब्दों को प्रयोग करके वो कर्इ बार बडे़ रिटेल स्टोरों के कर्मचारियों से ज्यादा प्रभाव महिलाओं पर छोड़ जाते है जो बेजारे मेएम शब्द के दायरे से बाहर ही नहीं आ पाते।
ज्यादातर महिलाए समय के अभाव के कारण दूर जाने की अपेक्षा अपने आस पास से की गयी खरीददारी में ज्यादा सहज महसूस करती है और अपने होमग्राउंड पे उत्पाद की वास्तविक कीमत का अनुमान भी बेहतर ढ़ग से लगा पाती है।
अब बारी आती है  स्ट्रीट वेंडर की । चलन में आने वाली कोर्इ नर्इ चीज जो शरूआती समय में महिलाओं के घरेलू बजट से उपर की होती है तो स्ट्रीट वेंडर उस उत्पाद के सस्ते विकल्प उपलब्ध कराते है। 
जो ज्यादा तर महिलाओं के लिए ये सबसे अच्छी बात होती है। इस प्रकार के क्रय विक्रय का दूसरा पहलू ये भी है कि ,  फेरीवाले अपने फटेहाल हालातों को भी माल के साथ जोड़कर पेश करते है। परिणाम स्वरूप ग्राहक भी दया उपकार की भावना में बह कर भी उत्पाद को ले लेता है।
फेरीवालों की बोली और व्यवहार दोनों ही ग्राहक पर मनोविज्ञानिक असर डालते है। वो अपने कम गुणवत्ता वाले समान को बेहतर बता कर डिंगे जरूर हाकता है, लेकिन उत्पाद के लेन देन की पूरी प्रक्रिया में ऐसी शालिनता भरी जी हुजूरी पेश करता है कि हमे आम से ख़ास बनते देर नहीं लगती ।
ग्राहक संतुष्टि की बातें नामचीन विषेशज्ञ और बड़े बड़े रिटेल मालिक आये दिन करते रहते है। काश वो इन अनपढ़ फेरीवाले , ठेलें वालों से भी कुछ सिख पाते
 जो ग्राहक की संतुष्टी और खुशी दोनों को अपने तराजू में लिये घूमते है।


कभी जोकर कभी जादूगर

तेरी नजर में मै स्मार्ट नहीं लेकिन स्मार्ट वर्क करता हू
तुझसे ज्यादा तेरी जरुरतों को प्यार करता हू.
सच्चा प्यार हू तुम्हारा बेकार समझती हो तुम मुझे.
दूसरों की शौहरतों से तौलती हो तुम मुझे.
आज वो सब मिल भी जाए तुम्हें तो क्या होगा.
किसी अमीरजादे की बाहों मे सिमट जाने से क्या प्यार होगा.
क्या वो तुम्हारें दिल जज्बात को समझ पायेगा.
मेरे जैसे ही तुम्हारी हर आहट को महसूस कर पायेगा.
चहरे पे हसी के फूल खिला पाएगा.
तुम्हारे लिए कभी जोकर तो कभी जादूगर बन पायेगा
                                     नहीं ना