Tuesday, April 14, 2015

पहचान का संकट

युवा देश की रीढ़ होता है । जिसके असीमित दम और विलक्षण दृष्टीकोण के सहारे  देश विकास करता है। युवा
आज सुई से लेकर विशालकाय पूलों, जहाजों और मिलों ,कारखानों का निर्माण कर रहा है,। रॉकेट सांइस पढ़ता है, कविताएं लिखता है, तरानों को ताल देता है, स्कार्इडाइविंग करता है , 
देश के राजनीतिक गलियारों में अपराध ,भ्रष्टाचार जैसें मुददों पर आवाज उठाता है , शोर मचाता है।
 वो भी अपने संविधानिक अधिकारों की हद में । 
उसकी आशाए सागर से गहरी और हौशलें आसमान से भी उचें है। 
इन सब के बीच सिक्के का दूसरा पहलू ये भी है कि आज देश के बहुत से युवा खुद के अस्तित्व से लड़ रहे है और खुद की पहचान के संकट से गुजऱ रहे हैं। प्रश्न ये मन में उठता है कैसा पहचान का संकट और कैसी अस्तित्व की जंग।
आदमी की शख्सियत उसके शारीरिक, समाजिक, और व्यक्तिगत पहचान से बनती है।
 और समस्या भी यहीं से शुरू होती है। जब इन्हीं तीन हिस्सों या किसी एक हिस्से में चोट पहुचती है। देश में आज ऐसे बहुत से युवा है जो बचपन में हुर्इ कुछ दुखद अनुभूतियों और वर्तमान की घुटन भरी प्रतिकूल सामाजिक परिस्थितयों में ऐसे घिर जाते है कि उनके मन, मस्तिष्क और व्यवहारिक समझ में दोष और विसमता पैदा हो जाती है।वो अपने जीवन के लक्ष्य को या यू कहें कि, भविष्य में क्या करना है, किस लिए करना ,क्यों करना है । इन सवालों के जवाब तय ही नहीं कर पाते । उनके प्रति उदासीन और बेबस नजर आते है। ऐसी स्थितियों को मनोविज्ञान में रोल कंनफूयजंन या आइडेंनटिटि क्राइसिस का उत्पंन होना कहते है। ऐसा होने पर युवा अपने करियर के प्रति ना आशावान दिखता है और ना ही ठीक ढ़ग से उसका मार्गदर्शन कर पाता है । खुद की कल्पनाशक्ति इच्छाशक्ति और अपनी वास्तविकता पर ही संदेह करने लगता है ।अपनी पहचान को ऐसी बातों से प्रदर्शित करने लगता है , जो मौजूदा समय में होती ही नहीं ।
अपने समकक्ष लोगों के सामने भी बराबरी की भावना पैदा नहीं कर पाता।
ये स्थिती तब और नाजुक हो जाती है , जब खुद से हारे ऐसे नवजवान अपनी शिक्षा और अपने मनचाहे काम के प्रति भी असमर्थ होने लगते है। 
देश में ऐसे हजारों युवक है, जिनके अंदर भावनाओं के प्रति प्रेम और काम के प्रति लगन का अभाव है।
 तो वहीं उनके अंदर जीवन लक्ष्यों और सामाजिक नियमों के उपेक्षा की प्रधानता हीं समार्इ हुर्इ है। ज्यादा तर युवको में बाहरी और आंतरिक अनुभवों में परस्पर विरोध होता है। जिसके कारण उनके अंदर खुद के अस्तित्व को लेकर तीव्र बेचैनी और छटपटाहट होती है।
कभी कभी ये समस्याए इतनी जटिल और भयानक हो जाती है कि उनके अंदर निगेटिव आइडेंटिटि का जन्म हो जाता है । जो आगे चलकर कारण बनता है , अपराध का , गैर सामाजिक व्यवहार का, मनोविकार का । यह एक ऐसी पहचान है जो उनके माता पिता सगे साथी दूारा बताये गये पहचान के बिल्कूल उलट होती है।
अधिकांश युवाओं को अपनी पहचान की जटिलता के बारे में थोड़ी बहुत ही जानकारी होती है। इस बात को ऐसे समझा जा सकता है।
क्या आप को पता है कि आप कौन है। यहां सवाल ये नहीं की आप गोरे है या काले, सवाल ये भी नहीं की आप हिंदू है या मुसलमान ।
सवाल ये है कि आप अंदर से कौन है आपकी सोच और चीजों को परखने का नजरिया क्या है। आपके जीने मरने ,होने ना होने से किसी को क्या फर्क पड़ता है या आपको क्या फर्क पड़ता हैं।
अगर आप इन सवालों के जवाब को महसूस नहीं कर पा रहे है तो आप पहचान के संकट का सामना कर रहे है।
इस समस्या का समाधान तभी हो सकता है जब युवा अपने पुराने दुखद अनुभवों को भूल पाये और भविष्य में आने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार रहे। 
पहचान का संकट हमेशा एक जैसी परिस्थितिया ही पैदा नहीं करता ,इस लिए युवाओं को आने वाली जरूरतों और आशाओं के हिसाब से खुद को लगातार परिभाषित करना होगा। जिसे वो अपनी पहचान को लेकर जागरूक हो सके और अपनी आंतरिक क्षमता को उच्चयतम स्तर तक विकसित कर सके।

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